वर्जनाएँ


मैं सब वर्जनाएँ तोड़ना चाहती हूँ,
माँ के गर्भ में खत्म नहींं होना चाहती हूँ,

ज़हरीले भुजंग से लिपटे तन पर,
उन हाथों को तोड़ना चाहती हूँ,

पाषण सी पड़ती निगाहें मुझ पर,
उन आंखों को फोड़ना चाहती हूँ,

बांधती जो गिरहें मुझ पर, कह कर इसे मुकद्दर,
उस संवेदनशून्य मनोवृत्ति का अंत देखना चाहती हूँ,

मेरे पाकीज़ा दामन को कलंकित कर,
क्रीड़ा की वस्तु मात्र नहीं बनना चाहती हूँ,

त्याग, क्षमा, ममता व देवी कि प्रतिमा का उपसर्ग जो दे मुझे,
उस अक्षम्य समाज कि वर्जनाएँ अब तोड़ना चाहती हूँ

बातें


कुछ लोग करते हैं, कुछ नही,
कुछ लंबी होती हैं, कुछ छोटी,

कुछ चकित करती हैं, कुछ हर्षित करती हैं,
कुछ ख्वाब में होती हैं, कुछ एहसास में,

कुछ आंखों से होती हैं, कुछ ज़ुबान से,
कुछ दिल से होती हैं, कुछ दिमाग से,

कुछ अनकही होती हैं, कुछ कहकहे लाती हैं,
कुछ हम सुनते हैं, कुछ अनसुनी करते हैं,

कुछ मासूम होती हैं, कुछ कर्कश,
कुछ स्पष्ट होती हैं, कुछ दोहरी,

कुछ से समय बीतता है, कुछ समय के साथ बीत जाती हैं,
कुछ दिल को छु लेती हैं, कुछ रूह को तोड़ देती हैं,

कुछ हो जाती हैं, कुछ यूँ ही खो जाती हैं,
कुछ सवाल छोड़ जाती हैं, कुछ जवाब बन जाती हैं…

मुसाफिर


चलते रहते हैं मुसाफिर, अपने आशियाने कि तलाश में…..क्या अचरज है,
ठहरते हैं कुछ अरसा, फिर जारी रखते हैं सफर को…..क्या अचरज है,
टकराती हैं राहें किसी मोड़ पर, मिलते हैं नसीब इत्तिफ़ाक़ से…क्या अचरज है,
हँसते हुए बढ़ जाते हैं आगे, क्योंकि मंज़िल तो सबकी मुख्तलिफ है….क्या अचरज है,
महज़ सामान है ज़स्बात, गठरी बाँधी और अगले सहर कोई और शहर…क्या अचरज है,
एतबार क्या करें किसी हमराही का, कल को ग़र गठरी उठाये हम ही चले जाए…
क्या अचरज है|

नीर


कभी है यह निर्मल, निरभ्र, निर्झर, नटखट,
कभी खो जाता हो अकस्मात निश्चल, नीरव, निर्जल,
नदी बन कर बहता कल-कल,
तृप्त करता जन – जन कि क्षुधा बेकल,
सागर में भर जाता जैसे नीलम,
स्पर्श करता क्षितिज द्वारा नील गगन,
बह जाता नयन से हो निर्बल,
जैसे हो पावन गंगाजल,
प्रकृति के क्रोध का बनता माध्यम,
ले जाता जीवों का जीवन, भवन और आँगन,
धो देता कभी अस्थि के संग मानव पापों का भार,
गिरता धरा पर कभी बन रिमझिम बूँदों का दुलार,
देश विदेश कि सीमा से अपार,
यहां वहां बहता सनातन सदाबहार

ख्वाबों का शहर


नम आँखों से जब अपने ख्वाबों को पूरा करने मैं अपने घर से दूर चलने लगा, वो सड़क बड़ी छोटी लगने लगी, ऐसा लगा काश वो सड़क खत्म ही ना हो. अपने साथ यादों का कारवाँ ले के चला था मैं. यूँ लगा उन सब यादों कि जुदाई सही ना जायेगी और घर के सामने कि वो सड़क लंबी हो जायेगी.

मेरे घर के हर कोने से मेरी अनेकों यादें जुड़ी थीं. चलते वक्त मन को बहलाने के लिए माँ कि बात याद आ गयी. उनने चिढ़ाते हुए कहा था की जहां मै जा रहा हूँ वहा इससे भी बड़ा घर होगा. अगले ही पल मन ने कहा – घर दीवारों से नहीं उसमें रह रहे लोगो से बनता है.

मन में भारीपन लिए पहुँच गया अपने ख्वाबों के शहर, उस सुंदर आलीशान घर के आगे मेरा अपना घर छोटा दीख पड़ता था,  फिर सोचा माँ जान कर बड़ी खुश होंगी!

उस अनजान नगरी में हर किसी के साथ कोई ना कोई था, आपस में हँसते-बोलते रहते और मै अकेला उन्हें तांकता रहता.

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उस भीड़ में मेरी नजर दो दोस्तों पर पड़ी. उनका वो मासूम-सा तकरार और अगले ही लम्हें में ढेर सारा दुलार, मानो एक दुसरे के साथ है तो दुनिया से कोई सरोकार ही नहीं. एक तरफ़ उन्हें देख कर खुशी हुई और फिर मेरे सबसे ख़ास दोस्त का ख्याल कर के दुःख.

कभी लगता था यहाँ से भाग निकलूँ, किंतु मेरे ख्वाब मुझे पीछे खींच लेते थे. उस तन्हाई के आलम में ख़ुद ही को समझा लिया करता था. दिन गुजरते गए. एक दिन माँ का ख़त आया, उनके जन्मदिन पर एक दिन के लिए घर बुलाया था. फिर क्या था, एक पंछी कि तरह उड़ चला अपने आशियने में. मेरे शहर कि गलियों कि वो महक, घर में घुसते ही माँ कि प्यारी-सी मुस्कान, पिताजी का दुलार और बहन का शरारत भरा झगड़ा – ‘भैया, तुम खाली हाथ तो नहीं आ गए ना’! ऐसा लगा ख़ुद को फिर से पा लिया. जन्मदिन मनाने के बाद अपने ख़ास दोस्त से मिलने गया. खूब बातेंं कर अपना मन हलका किया.

हर्षित मन के साथ लौट आया अपने ख्वाबों के शहर, इस बार दुगने उत्साह के साथ!

मोह पाश से इंसान कभी नहीं छूट सकता, मगर चलते रहने का नाम ही ज़िंदगी है ना!