वर्जनाएँ


मैं सब वर्जनाएँ तोड़ना चाहती हूँ,
माँ के गर्भ में खत्म नहींं होना चाहती हूँ,

ज़हरीले भुजंग से लिपटे तन पर,
उन हाथों को तोड़ना चाहती हूँ,

पाषण सी पड़ती निगाहें मुझ पर,
उन आंखों को फोड़ना चाहती हूँ,

बांधती जो गिरहें मुझ पर, कह कर इसे मुकद्दर,
उस संवेदनशून्य मनोवृत्ति का अंत देखना चाहती हूँ,

मेरे पाकीज़ा दामन को कलंकित कर,
क्रीड़ा की वस्तु मात्र नहीं बनना चाहती हूँ,

त्याग, क्षमा, ममता व देवी कि प्रतिमा का उपसर्ग जो दे मुझे,
उस अक्षम्य समाज कि वर्जनाएँ अब तोड़ना चाहती हूँ

बातें


कुछ लोग करते हैं, कुछ नही,
कुछ लंबी होती हैं, कुछ छोटी,

कुछ चकित करती हैं, कुछ हर्षित करती हैं,
कुछ ख्वाब में होती हैं, कुछ एहसास में,

कुछ आंखों से होती हैं, कुछ ज़ुबान से,
कुछ दिल से होती हैं, कुछ दिमाग से,

कुछ अनकही होती हैं, कुछ कहकहे लाती हैं,
कुछ हम सुनते हैं, कुछ अनसुनी करते हैं,

कुछ मासूम होती हैं, कुछ कर्कश,
कुछ स्पष्ट होती हैं, कुछ दोहरी,

कुछ से समय बीतता है, कुछ समय के साथ बीत जाती हैं,
कुछ दिल को छु लेती हैं, कुछ रूह को तोड़ देती हैं,

कुछ हो जाती हैं, कुछ यूँ ही खो जाती हैं,
कुछ सवाल छोड़ जाती हैं, कुछ जवाब बन जाती हैं…

जुनून


साहिल पर बैठ क्यूं तेरी नाकामी पर अश्क बहता है,
टूटी है कश्ती तो मार ले गोता उस समंदर में,
तोड़ उसका गुरुर,भीगो दे उसे तेरे आँसुओं से,

ग़र कामयाबी का है जुनून, मुकम्मल कर तैराकी पर फ़तेह,
ग़र डूब गया तो ज़िंदगी भर का गुमान ना रहेगा,
उस पर्वर दीगर से सीना तान दलील तो कर सकेगा

 

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मन कहे मुझे उड़ने को


मन कहे मुझे उड़ने को,
जो हो रहा है उसमें ग़ुम होने को,

जो चाहे वो हासिल हो जाए,
जो पाए वो भी ख़्वाहिश बन जाए,

हाथ उठे दुआ माँगने को,
अगले ही पल वो इबादत कुबूल हो जाए,

मन कहे मुझे उड़ने को,
जो हो रहा है उसमें ग़ुम होने को,

जो लफ्जों में बायाँ हो वो अल्फाज ही क्या,
खामोशी कि ज़ुबान में कुछ बायाँ आज किया जाए,

दूर् से ही तारों को आज ताके कुछ यूँ,
उन्हें तोड़ने कि तमन्ना पुरी हो जाए,

दुनियाँ से लड़ने के बहाने हजारों हैं,
पहले ख़ुद से ही जीत लिया जाए,

उस अक्स कि झलक कुछ यूँ मिलें,
के ख़ुद के अश्क़ धूल जाए,

मन कहे मुझे उड़ने को,
जो हो रहा है उसमें ग़ुम होने को

बस यूँ ही हम जिये जा रहे हैं!


बस यूँ ही हम जिये जा रहे हैं,
खुश रह्ने के तरीके ढूँढें जा रहे हैं!

कहाँ गयी वो मासूमियत,
खो गयी वो शरारत,
झूठी हँसी को खुशी का नाम दिए जा रहे हैं,
क्या सोचा और क्या किए जा रहे हैं,
बस यूँ ही हम जिये जा रहे हैं,
खुश रह्ने के तरीके ढूँढें जा रहे हैं!

आगे बढ़ने कि होड़ में ,
जीवन कि इस दौड़ में,
ख़ुद ही को पीछे छोड़ें जा रहे हैं,
सीमाओं का बहाना दिए जा रहे हैं,
बस यूँ ही हम जिये जा रहे हैं,
खुश रह्ने के तरीके ढूँढें जा रहे हैं! -By Mansi Ladha

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